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इकजाई

महेश चंद्र द्विवेदी ( पूर्व डीजीपी, उत्तर प्रदेश)

यदि आप अवध क्षेत्र के रहने वाले नहीं हैं तो सम्भवतः आप इकजाई से परिचित नहीं होंगे और इसे कोई जापानी कला समझ रहे होंगे। परंतु न तो यह जापानी इकेबाना की बहिन है और न बोंज़ाई की भौजाई। सच्ची बात कहूं तो इसका मूल जापान है ही नहीं। यह तो अंग्रेज़ी ज़माने की सरकारी विभागों में प्रचलित परम्परा का नाम है। अंग्रेज़ी ज़माने में थानों में इस परम्परा को वहां के सिपाही से लेकर थानेदार तक और गांवों के ज़मीदार, मुखिया, और दलालों से लेकर चौकीदार तक अच्छी तरह जानते थे। यह परम्परा उन सभी को एक आत्मीयता के बंधन में ऐसे बांधे रखती थी जैसे माला में गुरिया। परंतु स्वतंत्रता के साथ पुलिस कर्मियों में भी स्वच्छंदता आने लगी और उन्होंने इसे शीघ्र ही भुला दिया।

जब मैं पुलिस विभाग में नया-नया आया था, तब मुझसे मिलने अंग्रेज़ी ज़माने के एक नामी दरोगा आये थे। वह अब रिटायर हो चुके थे परंतु थाने के क्रिया-कलापों में गहन रुचि रखते थे। उन्होंने मुझे यह बात बताई थी कि सरकारी विभागों की अनेक समस्यायों का कारण इकजाई प्रथा को त्याग देना है। इसे त्याग देने के कारण ही आज सरकारी कर्मचारियों, अधिकारियों और मंत्रियों में पारस्परिक असंतोष एवं वैमनस्य बढ़ रहा है। इस वैमनस्य के कारण वे एक दूसरे की शिकायतें करते हैं, जिससे सी. आई. डी., सी. बी. आई. आदि की जांचें और आयकर की रेड्स लगातार बढ़ रही हैं। इनसे सरकारी काम-काज में तो ख़लल पड़ता ही है, प्रशासकीय कर्मियों और मंत्रियों को अपनी कमाई विदेशों में छिपाने को मजबूर भी होना पड़ता है।

अपनी बात में मेरी उत्सुकता भांपकर दरोगा जी ने आगे बताया था कि अंग्रेजी़ ज़माने में घूस के बटवारे के स्थापित नियम थे- ऐसा नहीं था कि जहां जिसका मौका लगा मुंह मार दिया। थानो में महीने के अंत में महीने भर में प्राप्त घूस का पूरा पैसा इकजाई किया जाता था और फिर नियमानुसार सभी कर्मचारियों में बांटा जाता था। ऐफ़. आई. आर. लिखने हेतु प्राप्त पैसे को छोड़कर अन्य सभी मदों जैसे गिरफ़्तारी, ज़मानत, चालान, ट्रैफ़िक, पटरी दुकानदार, शराब, शबाब, चोरी, तस्करी आदि से हुई पूरी आमद का 20 प्रतिशत सिपाहियों में बांटा जाता था। शेष का साठ प्रतिशत बडे़ दारोगा और चालीस प्रतिशत छोटे दारोगाओं में बंटता था। यदि किसी समय किसी लक्ष्मीभक्त डिप्टी एस. पी. या एस. पी. को ख़ुश करने की आवश्यकता होती थी, तो बड़े दरोगा अपने हिस्से से करते थे। रिपोर्ट लिखने हेतु प्राप्त कुल धन का सत्तर प्रतिशत दीवान जी को एवं तीस प्रतिशत उनके सहायक मुंशीजी में बंटता था। उच्चाधिकारियों के आगमन पर उनकी ख़ातिरदारी यथा अंडा-मुर्गा, रोटी-दाल, चाय-बिस्कुट आदि का खर्चा दीवान जी को उठाना पड़ता था। यह बटवारा ईमानदारी से और नियमानुसार होता था, अतः सब संतुष्ट रहते थे।

दरोगा जी ने खेद प्रकट करते हुए बताया कि अब इकजाई प्रथा समाप्त हो गई है और जिसको जहां मौका मिलता है, झपट कर चुपचाप रख लेता है। इससे पारस्परिक अविश्वास, संदेह और ईर्ष्या-द्वेष पैदा होता है। दरोगा जी का निशंक मत था कि यदि फिर विभिन्न विभाग इकजाई प्रथा अपनाकर नियमानुसार मिलबांट कर खाने लगें तो एक दूसरे के प्रति ईर्ष्या-द्वेष नहीं उत्पन्न होगा। इससे शिकायतबाज़ी नहीं होगी और सी. बी. आई.] आयकर] सतर्कता आदि की जांच का भय समाप्त हो जायेगा और सभी कर्मचारी निर्द्वंद्व होकर अपना कार्य सम्पादन कर सकेंगे। फिर विदेशी बैंकों में धन जमा करने की ज़रूरत भी नहीं रहेगी। अतः डौलर-ड्रेन नहीं होगा। इसके अलावा सामान्य जन को अपना काम कराने के लिये चपरासी से लेकर मंत्री तक को अलग अलग खुश करने का झंझट समाप्त हो जायेगा और यह प्रथा एक इफ़ेक्टिव सिंगिल-विंडो-सिस्टम का काम करेगी।

आगे के अपने सेवाकाल के अनुभव से मैं विश्वासपूर्वक कह सकता हूं कि दरोगा जी की बात में बहुत दम था।

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