वातायन – 1
एक अभिशप्त वृक्ष की व्यथा-कथा – डॉ0 शिव ओम अम्बर
पिछले कुछ दिनों से देश में घटित होती तमाम विक्षोभकारी घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में मुझे एक कहानी बार-बार याद आ रही है। मैंने सुना है कि एक व्यक्ति के द्वारा लगाये गये बाग में सदैव विविध पक्षियों का कलरव गूंजा करता था किन्तु उस बाग में एक वृक्ष ऐसा भी था जिस पर कोई पक्षी आकर बैठता ही नहीं था। फिर धीरे-धीरे उस पर मात्र उलूकों ने आकर डेरा डाला। रात को अँधेरे में उनकी उपस्थिति भयावह लगती थी और दिन में पेड़ की सघनता में कहीं छिपे हुए वे मूर्तिमन्त अपशकुन प्रतीत होते थे। उस व्यक्ति के पर्याप्त प्रयत्नों के बावजूद अन्य कोई पक्षी उस वृक्ष पर आकर बैठा नहीं और उल्लू उसे छोड़कर गये नहीं। संयोग से एक दिन उस व्यक्ति की भेंट एक प्रज्ञापुरुष से हुई। व्यक्ति की परेशानी जानकर उसने ध्यानस्थ होकर समस्या की तह तक पहुँचने की कोशिश की और फिर उस व्यक्ति को बताया कि उसके बाग का एक वृक्ष अभिशप्त वृक्ष है और उस पर मात्र उल्लू ही बैठेंगे। उस व्यक्ति ने अत्यधिक विक्षुब्ध होकर उस वृक्ष को ही कटवा दया और उस प्रज्ञापुरुष के पास जाकर कहा कि मैंने नियति के विधान को बदल दिया है और उस वृक्ष को कटवाकर उसे शाप से मुक्त कर दिया है। प्रज्ञापुरुष पुनः ध्यानस्थ हुआ और फिर उस व्यक्ति को बताया कि नहीं, अभी वह वृक्ष शाप मुक्त नहीं हुआ है। जाकर पता लगाओ, वृक्ष का रूप बदल गया है किन्तु उस पर अभी उल्लू ही बैठ रहे हैं।
अब उस व्यक्ति ने उत्सुक होकर कटे हुए वृक्ष की वर्तमान स्थिति की जानकारी प्राप्त करने की कोशिश की। पता चला कि बाग से वृक्ष को काटकर लकड़हारे ने वृक्ष की लकड़ी एक बढ़ई को बेंच दी थी। बढ़ई ने उस लकड़ी की गुणवत्ता को परखकर उससे कुछ बहुत आकर्षक कुर्सियाँ बनाईं। संयोग से उन पर दिल्ली के एक व्यापारी की नज़र पड़ गई, वे उसे भा गईं। वह उन्हें ख़रीदकर दिल्ली ले गया और वर्तमान कालखण्ड के कुछ महत्वपूर्ण राजनीतिज्ञों को भेंट कर आया।
कुर्सियाँ उन्हें भी अच्छी लगीं और वे अक्सर उन पर आसीन रहते हैं। ऐसे लोगों को रोशनी की दीवार पर लिखी आतंकवाद की इबारत नज़र ही नहीं आती, तुष्टीकरण के अँधेरे उन्हें मुफ़ीद पढ़ते हैं, रास आते हैं। व्यक्ति की समझ में आ गया है कि प्रज्ञापुरुष का कथन अक्षरशः सही है। कुर्सी का रूप धारण कर लेने वाले उस अभिशप्त वृक्ष की व्यथा कथा वही है, उसकी नियति बदली नहीं है, आज भी उस पर उल्लू ही बैठ रहे हैं।
जिसकी ज्वाला बुझ गई वही पापी है
राष्ट्रकवि दिनकर ने कभी बड़े विक्षोभ के साथ कहा था –
यज्ञाग्नि हिन्द में समिध नहीं पाती है,
पौरुष की ज्वाला रोज़ बुझी जाती है।
उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि क्षमात उसी भुजंग को शोभा देती है जिसके पास गरल हो। विषदंत से हीन विषधर के द्वारा क्षमा के वक्तव्य किसी नपुंसक के आत्मालाप की तरह हुआ करते हैं। शक्ति की महत्ता को रेखांकित करते हुए वह इसी कारण निभ्रन्ति स्वर में उद्घोषणा कर सके थे –
वह अधी बाहुबल का जो अपलापी है,
जिसकी ज्वाला बुझ गई वही पापी है।
आज जब एक निश्चत अंतराज के बाद यह देश पुनः पुनः आतंकवादी प्रहारों से आहत होता रहता है और सत्ता में बैठे हुए व्यक्तित्व एक पिष्पोषित वक्तव्य देकर, मृतकों के परिवार वालों की थोड़ी आर्थिक सहायता करके अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं और लाचार देश चुपचाप अगले विस्फोट की प्रतीक्षा करने लगता है, दिनकर जी का आक्रोश और भयावह विक्षोभ बहुत याद आता है। तत्कालीन प्रधानमंत्री के बहुत क़रीब होते हुए भी उन्होंने ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ में जो कठोर चेतावनी दी थी वह आज फिर अत्यन्त प्रासंगिक हो उठी है –
जा कहो पुण्य यदि बढ़ज्ञ नहीं शासन में,
या आग सुलगती रही प्रजा के मन में,
बढ़ता तमिस्र यदि गया धकेल प्रभा को,
निर्बन्ध पंथ यदि मिला नहीं प्रतिभा को,
रिपु नहीं यही अन्याय हमें मारेगा,
अपने ही घर में फिर स्वदेश हारेगा।
लेकिन सत्तासीन, समय के सम्राट शब्द के साधनाव्रती के स्वर को सुनते कब हैं ? अन्ततः हुंकार का उद्दाम भाव ‘हारे को हरिनाम’ बनकर विसर्जित हुआ। क्या इस बार भी ऐसा ही होगा ? कवि का सम्बोधन अरण्य-रोदन ही सिद्ध होगा ?
ग़ज़ल