Sunday , August 3 2025

आग की लपटे

                    आग की लपटे

 

ये आग की लपटें बड़ी ऊंची है,

कहां से कहां पहुंच जाती है

क्या क्या  निगल जाती है

मीलों की दूरी सेकेंड में तय कर आती है
भयावह विनाश रच जाती है।
जला जाती है सपनों को रहने के ठिकानों को
 बदल देती है बनी हुई पहचान को
फिर भी नही होती है तृप्त
जगाती है निराशा को जो थी अभी तक सुप्त
भरती है जीवन में बेवजह तानों को
दो जून की रोटी ढूंढती निगाहों को
दोष किसका है क्यों हुआ, कैसे हुआ
 किसकी सिकी रोटी किसको मिली बोटी
ये तो कहानी है कुछ न कुछ बनानी है
किंतु जो पीड़ित है उनका क्या होगा
कुछ मिले पैसों से जीवन कब -तक झिलेगा  ।।

– शकुन त्रिवेदी, कोलकाता, पश्चिम बंगाल 

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