आग की लपटे

कहां से कहां पहुंच जाती है
क्या क्या निगल जाती है
मीलों की दूरी सेकेंड में तय कर आती है
भयावह विनाश रच जाती है।
जला जाती है सपनों को रहने के ठिकानों को
बदल देती है बनी हुई पहचान को
फिर भी नही होती है तृप्त
जगाती है निराशा को जो थी अभी तक सुप्त
भरती है जीवन में बेवजह तानों को
दो जून की रोटी ढूंढती निगाहों को
दोष किसका है क्यों हुआ, कैसे हुआ
किसकी सिकी रोटी किसको मिली बोटी
ये तो कहानी है कुछ न कुछ बनानी है
किंतु जो पीड़ित है उनका क्या होगा
कुछ मिले पैसों से जीवन कब -तक झिलेगा ।।