मेरी ग़ज़लें मेरी व्याख्या करेंगी- – डाॅ॰ शिव ओम अम्बर
प्रीति गंगवार, फरुखाबाद, उत्तर प्रदेश द्वारा संकलित
‘‘दिनचर्या’’ मेरी डायरी
हर रचनाकार के जीवन में, यदि वह डायरी लिखता है, तो उसका एक साहित्यिक महत्व भी हो जाता है क्योंकि उसका परिवेश ही शब्दों के वितान से आच्छादित होता है। समकालीन रचनाकारों में डाॅ॰ शिव ओम अम्बर का डायरी लेखन कई वर्षों का विस्तार लिए है और उनका संघर्ष, उनकी सफलता, उनके आह्लाद तथा अवसाद का साक्षी है। उन्होंने कहीं लिखा है –
मेरी दैनन्दिनी सन्दर्भ देगी,
मेरी ग़ज़लें मेरी व्याख्या करेंगी।
हम हर सप्ताह उनकी डायरी के कुछ पृष्ठ तथा उनकी कम से कम एक रचना प्रकाशित करने की कोशिश करेंगे। उनकी हर डायरी का एक नाम है, ये पृष्ठ ‘‘दिनचर्या’’ से लिए गए हैं।
–
दिनांक – 01.12.2004 दिन – बुधवार
कल शाम दिल्ली से किसी हिन्दी-अधिकारी का फ़ोन आया। उन्होंने इण्डियन आयल के काव्य-समारोह में मुझसे टेलीफ़ोन नम्बर लिया था। संचालन के सन्दर्भ में वह कुछ टिप्स चाहते थे। फिर मेरा पोस्टल एड्रेस नोट किया।
दिल्ली-यात्रा से पूर्व ही पालीवाल साहब ने दूरभाष् के माध्यम से सूचित कर दिया था कि सदा की तरह रेलवे स्टेशन के बाहर कोई टैक्सी ड्राइवर मेरा नामपट्ट लिये प्रतीक्षारत होगा। मेरी सुविधा के लिये उसे मोबाइल भी दिया गया है। उसका नम्बर उन्होंने मुझे नोट करा दिया। ……….. गेस्ट हाउस मेें मेरे पहुँचते-पहुँचते उनका फ़ोन भी आ गया, कुशलता लेने के लिये। जब मैं तैयार हुआ स्नानादि के बाद पंडित रामकिंकर जी की पुस्तक का अध्ययन कर रहा था, पाश्र्व के कमरे में स्थित सुबन दुबे भेंट करने आ गईं। बहुत देर तक उनसे आत्मीय वार्तालाप चला। इसी बीच डाॅ॰ पालीवाल भी आ गये। वह अशोक चक्रधर जी से उनके घर पे भेंट करने जा रहे थे। हरीओम पवार जी पाँव के फ्रैक्चर की वजह से नहीं आ पा रहे हैं – यह बात अब सबको ज्ञात हो गई थी किन्तु कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं की गई थी!
इस बार संचालन अशोक जी को करना था अतः मुझे एक दूसरे प्रकार की उद्विग्नता थी। कार्यक्रम के कवि थे – सर्वश्री गोपालदास नीरज, ओमप्रकाश आदित्य, अशोक चक्रधर, सुनील जोगी, डाॅ॰ कुँअर बेचैन, कीर्ति काले, सुमन दुबे तथा डाॅ॰ विष्णु सक्सेना। इन महारथियों के मध्य मेरा क्या हश्र होगा – यह सोचकर चित्त परेशान हो रहा था। इस बात का भी मुझे अहसास था कि अधिकांश कवि-मित्रों का भाव मेरे प्रति मैत्रीपूर्ण नहीं था, नीरज जी तो कोई अपमानजनक टिप्पणी भी कर सकते थे, अशोक मुझे उपहासास्पद बनाने की चेष्टा पहले भी कर चुके थे! ………. मैं भोजन के उपरान्त एक-दो घंटे के लिये दिल्ली हाट चला गया और पश्चिमी रंग में डूबी दिल्ली की आधुनिकता को अवसादग्रस्त चित्त के साथ देखता रहा। वहाँ सर्वत्र अंग्रेज़ी का बोलबाला था, रहे-सहे वस्त्रों को भी शरीर से अलग हटाकर रख देने को उत्सुक युवतियाँ और किशोरियाँ थीं, युवा दिखने की जी-तोड़ कोशिश में भद्दी दिख रही प्रौढ़ाएँ थीं, सार्वजनिक रूप से लिये जा रहे कामातुरों के कपोल-चुम्बन थे, स्त्री-स्वातंत्र्य की बात करता एक नुक्कड़ नाटक भी खेला जा रहा था जो उस वर्जनामुक्त परिवेश में अर्थहीन प्रतीत हो रहा था।
दिल्ली-हाट से लौटते ही सूचना मिली कि पालीवाल साहब के निरन्तर फ़ोन आ रहे हैं, वह मुझसे कोई ज़रूरी बात करना चाहते हैं। इस बीच नीरज जी और विष्णु भी अपने-अपने कमरों में आ चुके थे। विष्णु मेरे वहाँ पहुँचते ही भेंट करने आ गये। डाॅ॰ पालीवाल के फ़ोन से पता चला कि अचानक अशोक जी की तबीयत ख़राब हो गई है, वह अगर आये तो कुछ देर के लिये कार्यक्रम में आयेंगे और अब संचालन मुझे ही करना होगा। मैं निर्वाक् होकर श्रद्धेय शास्त्री जी के रामजी की लीला देख रहा था। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ने अपनी किसी कविता में उद्भावना की है कि किसी के ग्रह-दोष ने मुझे सौभाग्य की शिला पर बैठा दिया है। मेरे साथ ऐसा ही हो रहा था। बी. एड्. के शैक्षिक-भ्रमण के दौरान भी वृन्दावन में अचानक श्रीकृष्ण शरद की तबीयत ख़राब होने से मुझे कैम्प-फ़ायर में कार्यक्रम का संचालन करना पड़ा था और मैं देखते-देखते ही सबका प्रिय बन गया था। मेरी अपनी दृष्टि में भी इस बार के इण्डियन आयल के मंच का मेरा स्वतः स्फूर्त मंच-संचालन वस्तुतः उत्कृष्ट प्रस्तुतीकरण, प्रत्युत्पन्नमतित्व तथा सहज आत्मविश्वास की समृद्धि का श्रेष्ठ उदाहरण था। बाद में विष्णु तथा अन्य लोग भी कह रहे थे कि इस बार का मेरा काव्य-पाठ अद्भुत प्रभावपूर्ण तथा पर्याप्त विस्तृत भी था। मैंने इस मंच पे कभी भी इतनी देर तक काव्य-पाठ नहीं किया। समग्र सभागार मेरी हर पंक्ति के साथ था। विष्णु ने बताया कि नीरज जी ने भी हर पंक्ति को ध्यान से सुना और सच्चे मन से सराहना की।
आदित्य जी ने भी सार्वजनिक रूप से मेरे प्रति प्रशंसात्मक टिप्पणियाँ कीं। कार्यक्रम के बाद मैं श्रद्धान्वित बन्धुओं की भीड़ से घिरा हुआ था। संचालन के कारण बढ़े हुए पारिश्रमिक की रसीद पर मेरे हस्ताक्षर लेने के लिये नियुक्त महिला-अधिकारी को बहुत देर मेरे मुक्त होने की प्रतीक्षा करनी पड़ी। पालीवाल साहब भाव-गद्गद् हो रहे थे। मैं प्रभु-कृपा के संस्पर्शों का अनुभव कर रहा था।
ग़ज़ल
स्वप्निल शत प्रतिशत होते हैं,
कवि ख़ुशबू के ख़त होते हैं।
विद्वज्जन उद्धत होते हों,
विद्यावन्त विनत होते हैं।
सुख के सौ-सौ युग क्षणभंगुर,
दुख के पल शाश्वत होते हैं।
स्वीकृत हो पथ के कंटक भी,
पुष्पों में परिणत होते हैं।
बनते उत्स महाकाव्यों के,
आँसू सारस्वत होते हैं।
– डाॅ॰ शिव ओम अम्बर