दिनांक – 02.12.2004 दिन – गुरुवार
1. दिल्ली से शाहजहांपुर की यात्रा विष्णु के साथ हुई। ट्रेन कई घण्टे विलम्ब से थी। पुरानी दिल्ली के रेलवे प्लेटफार्म पर यह समय प्रतीक्षा-कक्ष में कटा। यात्रा में भी कई घण्टे लगे। विष्णु के कारण सब कुछ सुखद रहा।
2. शाहजहांपुर के आयोजन की तिथि भी मेरी सुविधा के लिये परिवर्तित कर दी गई थी। कभी मैंने एक मंच पर हो रहे मुशायरे और कवि-सम्मेलन के अलग-अलग संचालकों के होने पर आपत्ति की थी। इस बार पहले से ही घोषित था कि समग्र कार्यक्रम का संचालन मेरे द्वारा होगा।
3. आयोजन में मुख्य कविगण थे सर्वश्री वसीम बरेलवी, नवाज़ देवबन्दी, डॉ० विष्णु सक्सेना, संज्ञा तिवारी आदि। अनवर जलालपुरी इस बार नहीं थे। पहले जब भी गया हूँ, उन्हें ही मुशायरे का संचालन करते पाया है।
4. कार्यक्रम में सरस्वती-अभ्यर्चना से पूर्व ही कवियों एवं शायरों का माल्यार्पण कर दिया गया। कर्मकाण्ड में हुई यह बड़ी ग़लती मुझे उसी समय खली थी, बाद में इसे संयोजक महोदय ने भी महसूस किया।
5. सरस्वती-वन्दना विष्णु ने की। किन्तु उसके बाद स्वयं को वीर रस का कवि कहने वाले आगरे से आये एक कवि ने पहले तो हास्य-व्यंग्य के चुटकुले सुनाये, फिर एक सरस्वती-वन्दना भी प्रस्तुत की जिसमें कुछ प्रयोग भदेस थे!
6. सरस्वती-वन्दना पढ़ कर जाते विष्णु ने माइक के ख़राब होने की शिक़ायत की। फिर लगभग हर कवि ने इस दंश को महसूस किया। माइक अन्त तक गड़बड़ ही बना रहा, पूरे आयोजन पर इस दुर्व्यवस्था की छाया रही।
7. युवकों का एक झुण्ड हिन्दी के रचनाकारों की हूटिंग के लिये प्रतिश्रुत था, उनकी फ़ब्तियों ने माहौल को सहज बनने ही नहीं दिया।
8. मुम्बई से पधारे एक कवि महोदय ने एक पुराने साहित्यकार की रचना पढ़ दी।
9. मुम्बई के ही दूसरे कवि घनश्याम अग्रवाल जी की व्यंग्य कविता पर्याप्त लम्बी थी किन्तु उसे सम्यक् सराहना मिली।
10. केवल नवाज़ देवबन्दी और वसीम साहब को समग्र श्रद्धा से सुना गया, एक शायरा भी थी, उसे भी सबका प्यार मिला।
11. आश्चर्यजनक रूप से मेरे संचालन तथा काव्य-पाठ दोनों को ही पर्याप्त आदर और सम्यक् सराहना प्राप्त हुई।
12. वसीम साहब मेरी प्रशंसा में मुखर हुए।
13. मंच की अध्यक्षता कर रहे मुस्लिम सज्जन ने तो अपनी अध्यक्षीय वक्तृता को मेरे प्रति भावभीनी अभिव्यंजना ही बना दिया।
14. हूटिंग करने वाला समुदाय भी मेरे प्रति आदरयुक्त तथा अपने आचरण में अनुशासित रहा।
15. कार्यक्रम के उपरान्त् श्रद्धान्वित बन्धुओं से घिरा रहा। उनमें एक ऐसे सज्जन भी थे जो पत्रकार थे और जिनकी पत्नी फ़र्रुख़ाबाद में मेरी छात्रा रही थी। उसके श्रद्धा-भाव का भी वह उल्लेख कर रहे थे।
16. प्रारंभ में कानपुर के अनेक कार्यक्रमों में मिले उन सज्जन से भी भेंट हुई थी जो कवियों के द्वारा वही-वही रचनाएँ सुनाये जाने के बिन्दु पर बहुत उद्विग्न थे। वह उस दिन अपने किसी काम से शाहजहांपुर में थे।
17. संयोजक अखिलेश मिश्र का व्यवहार प्रारंभ से अंत तक अति सौमनस्यपूर्ण था।
ग़ज़ल
सुविधा से परिणय मत करना,
अपना क्रय-विक्रय मत करना।
भटकायेंगी मृगतृष्णाएँ,
स्वप्नों का संचय मत करना।
कवि की कुल पूँजी हैं ये ही,
शब्दों का उपव्यय मत करना।
हँसकर सहना आघातों को,
झुकना मत, अनुनय मत करना।
सुकरातों का भाग्य यही है,
विष पीना विस्मय मत करना।
– डॉ० शिव ओम अम्बर