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सभागृह से विदाई चाहता हूं

  • सभा में गूंजती हो तालियां जब, सभागृह से विदाई चाहता हूं …

  • 15.12.2004

1. अख़बारों में ‘‘वाह-वाह’’ का, ‘‘अर्ज़ किया है’’ आदि का ज़िक्र हो रहा है, आलेख निकल रहे हैं।

2. मित्रों के अक्सर संदेश आते हैं – मुझे आज सुनना।

3. मैं उस चुटकुले का किरदार बनकर रह गया हूँ – हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल-खण्ड के इतिहास में तुम्हारा नाम आ गया है। प्रसाद – पन्त – निराला – महादेवी – दिनकर इत्यादि …….. तुम इत्यादि में परिगणित हो!

4. 18 दिसम्बर को तिर्वा में एक अखिल भारतीय कवि-सम्मेलन होने जा रहा है। मित्रगण उसमें आमन्त्रित 18 रचनाकारों के नाम पढ़ते हैं और आपस में चर्चा करते हैं कि मैं उसमें क्यों नहीं हूँ। ……………

5. इन्दिरा जी ने बताया कि उस दिन कंचन जी तथा राजेश हजेला ने फ़ारुख़ सरल को फ़र्रुख़ाबाद महोत्सव के लिये आमन्त्रित किया।

6. कंचन जी तथा राजेश बहुत घुल-मिलकर बाते करते दिखे तो थे।

7. महेश वर्मा आदि के समक्ष कंचन जी अपने को मेरे उपेक्षापूर्ण आचरण से पीड़ित बताते हैं, डॉ० पाठक से कहते हैं कि राजेश ने शरारतपूर्ण समाचार प्रकाशित किया – उन्होंने कुछ कहा ही नहीं था।

8. जिस राजेश से उन्हें विक्षुब्ध होना चाहिये था, यदि राजेश ने शरारत की थी तो, उसकी पीठ वह निरन्तर थपथपा रहे हैं!

17.12.2004

1. कल श्री सतीशचन्द्र जी माहेश्वरी की अन्त्येष्टि में सम्मिलित होने के लिये विद्यालय से अवकाश लिया।

2. आज प्रातः ही राजन का फ़ोन आया कि उठावनी की रस्म आज ही होनी है।

3. यद्यपि मौसम के जानकारों ने इस वर्ष 20 दिसम्बर से जाड़ा पड़ने की बात कही थी, आज से ही पर्याप्त कुहासा हो गया है।

4. विद्यालय के प्रदूषित वातावरण का एक परिणाम आज परीक्षा के दौरान उभरकर सामने आया जब ग्यारहवीं कक्षा के बच्चों ने सामूहिक अनुशासनहीनता प्रदर्शित की।

5. ग़लती तो अनुभव और सहज व्यावहारिकता से अनभिज्ञ अध्यापक रामेश्वरदयाल की थी।

6. किन्तु प्रवीण तथा मुकेश गौतम नामक दो अशिष्ट बालकों ने पूरी कक्षा को आन्दोलित कर दिया।

7. उस कक्षा को पढ़ाने वालों में मैं भी हूँ अतः मुझे व्यक्तिगत रूप से बहुत बुरा लगा।

8. अभी तक विद्यालय का प्रधानाचार्य पद विवादित है।

9. बच्चों के हुजूम में कक्षाध्यापक रामपाल के पार्श्व में जाकर केवल नरेन्द्रपाल सिंह सोलंकी और मैं खड़े हुए।

10. तमाम वरिष्ठ अध्यापक और दोनों प्रधानाचार्य उधर नहीं आये!

ग़ज़ल

जुलाहे तक रसाई चाहता हूँ,

समझना हर्फ़ ढाई चाहता हूँ।

नहीं मंजू़र है ख़ैरात मुझको,

पसीने की कमाई चाहता हूँ।

अलग है ढंग मेरी अर्चना का,

व्यथा जीना पराई चाहता हूँ।

अमावस ही अमावस है चतुर्दिक्,

जुन्हाई ही जुन्हाई चाहता हूँ।

जुटाने में जिन्हें उम्र कुल बीती,

लुटाना पाई-पाई चाहता हूँ।

सजे जिसपे महादेवी की राखी,

निराला-सी कलाई चाहता हूँ।

बसी है मेरे भीतर कोई कुब्जा,

तरन-तारन कन्हाई चाहता हूँ।

पड़े थे जो सुदामा के पगों में,

वो छाले वो बिवाई चाहता हूँ।

सभा में गूँजती हों तालियाँ जब,

सभागृह से विदाई चाहता हूं।।

संकलन: प्रीति गंगवार, फर्रुखाबाद, उत्तर प्रदेश

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