
14वें दलाई लामा की भारत में उपस्थिति भारत-चीन संबंधों के केंद्र में है। अभी तक भारतीय नीति निर्माताओं या शासकों ने भारत के जमीन पर दलाई लामा के लोकतांत्रिक गतिविधियों को दबाए रखने और खुले मीडिया की चकाचौंध से दूर रखा है जिसके कई कारण हो सकते हैं ।
तिब्बत में दलाई लामा की भूमिका और चीन उन्हें गद्दार क्यों कहता है और उनकी गतिविधियों को अपनी राष्ट्रीय अखंडता बनाए रखने के लिए खतरनाक क्यों मानता है , इन सबके के आयाम इतिहास में समेटे हुए हैं ।
1913 में चीन की राष्ट्रवादी पार्टी या नेशनलिस्ट पार्टी द्वारा सैन्य विद्रोह कर चीन के राजवंश के अंतिम सम्राट को हटाने के बाद, तिब्बत ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी। ऐसे भी तिब्बत पर चीन के सम्राटों का कोई पूर्ण रूप से अधिपत्य नहीं था । तिब्बत चीन का जागीरदार राज्य या वसाल स्टेट था जिसका मतलब था की तिब्बत को सैन्य सहायता और वाणिज्य के लिए चीन के सम्राटों को कर देना पड़ता था, उनकी स्वाधीनता अन्य मामलों में पूरी थी । दोनों विश्व युद्धों के कारण चीन की राजनीतिक गतिविधियाँ मंदी में रहीं। लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इसमें तेजी आई और रूसी कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय समर्थन से, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने युन सत सेन के नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी पार्टी को उखाड़ फेंका ।
काफी संघर्ष के बाद , 01 अक्टूबर 1949 को, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने चीन के मुख्य भूमि पर पूर्ण नियंत्रण हासिल कर लिया और देश का नामकरण पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना अपने अध्यक्ष माओत्से तुंग द्वारा करवाया । अपने विस्तार की निति के रूप में, चीन कम्युनिस्ट पार्टी के सशस्त्र कैडर, पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने 1950 में तिब्बत में प्रवेश किया और 1951 में दलाई लामा द्वारा जबरन 17 सूत्रीय समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए दबाव डाला।
इस समझौते के तहत तिब्बत चीन के आधीन तो होगा पर उसकी स्वायत्तता बरकरार रखनी थी। नव स्थापित कम्युनिस्ट चीन के अंदर आंतरिक उथल-पुथल जारी रही, इसी बीच उन्नीस वर्षीय दलाई लामा ने 1954 से 1955 तक लगभग एक वर्ष के लिए चीन का दौरा किया, और कई क्रांतिकारी नेताओं और चीनी कम्युनिस्ट नेतृत्व के शीर्ष नेताओं से तिब्बत की स्वायत्तता के लिए मुलाकात की। सितंबर 1954 में, वह 10वें पंचेन लामा के साथ चेयरमैन माओत्से तुंग से मिलने के लिए चीनी राजधानी गए और एक प्रतिनिधि के रूप में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के केंद्रीय समिति जिसे नेशनल पीपुल्स कांग्रेस कहते हैं की बैठक के पहले सत्र में भाग लिया, जिसमें मुख्य रूप से चीन के संविधान पर चर्चा की गई। 27 सितंबर 1954 को, दलाई लामा को नेशनल पीपुल्स कांग्रेस की स्थायी समिति के उपाध्यक्ष के रूप में चुना गया था, इस पद पर वे आधिकारिक तौर पर 1964 तक रहे।
10 मार्च 1959 को, चीनी सेना ने तिब्बत की राजधानी ल्हासा को घेर लिया और युवा दलाई लामा को बिना अंग रक्षक के उनके शिविर में आने के लिए कहा। 17 मार्च 1959 को दलाई लामा के समर्थको के कहने पर गुप्त रूप से ल्हासा छोड़ दिया। 31 मार्च 1959 को उनका दल मैकमोहन रेखा को पार कर तवांग पहुँच गया । उसी दिन भारतीय प्रधान मंत्री ने संसद में दलाई लामा के भारत आगमन की घोषणा की। निर्वासित तिब्बती सरकार को दलाई लामा के अधीन भारत में स्थापित करने की अनुमति दी गई। 29 अप्रैल 1959 को, दलाई लामा ने मसूरी के हिल स्टेशन में स्वतंत्र निर्वासित तिब्बती सरकार की स्थापना की, जो मई 1960 में धर्मशाला में स्थानांतरित हो गई, जहाँ वे अब रहते हैं। 2011 में दलाई लामा ने राजनीति से सन्यास ले लिया और लोकतान्त्रिक तरीके से चुने हुए , केंद्रीय तिब्बती प्रशासन के लिए घोषणा कर दी ।
दलाई लामा की बुद्ध की शिक्षा भारतीय है | उनकी बौद्ध शिक्षाओं में नालंदा के 17 पंडित जिनमे नागार्जुन, कमलशिला, शांतिदेव, अतिशा और आर्यदेव जैसे महान गुरु शामिल हैं । दलाई लामा इन नालंदा आचार्यों के बारे में अक्सर इस बात पर जोर देते हैं कि ‘तिब्बती बौद्ध धर्म’ प्राचीन भारत में नालंदा मठ की बौद्ध परंपरा पर आधारित है ।
1961 से 1974 तक तिब्बती स्वतंत्रता की वकालत करने के बावजूद, दलाई लामा अब इसका समर्थन नहीं करते हैं। इसके बजाय वह पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के भीतर तिब्बतियों के लिए अधिक स्वायत्तता देने की वकालत करते हैं। इस दृष्टिकोण को “मध्यम मार्ग” के नाम से जाना जाता है। दलाई लामा की यह निति बदलाव अमेरिका द्वारा तिब्बत के लोगों को चीन के खिलाफ दिए गए गुप्त मदद को बंद करने से प्रभावित है, जिसकी चर्चा दूसरे बिंदु में की गयी है ।
अक्टूबर 2020 में दलाई लामा ने नोबेल पुरस्कार विजेता के रूप में चीन का दौरा करने की उम्मीद भी जाहिर की । उन्होंने कहा, “मैं पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना में ‘गणतंत्र’ की अवधारणा को प्राथमिकता देता हूं। गणतंत्र की अवधारणा में, जातीय अल्पसंख्यक तिब्बती, मंगोल, मंचू और उइगर जैसे सम्प्रदायों के साथ सद्भाव में रहने की उम्मीद करता हूँ “।लंबे समय से चीन द्वारा “विभाजनवादी” और “देशद्रोही” कहे जाने वाले दलाई लामा ने चीन में तिब्बत की स्थिति पर औपचारिक बातचीत का भी प्रयास किया है।
घर्मशाला, हिमाचल प्रदेश में तिब्बत का निवार्सित सरकार कार्य करता है। पुरी दुनिया में फैले तिब्बती अपने संसद के लिए प्रतिनिधि चुनते हैं। उनमें से एक मंत्रीमंडल जिसका प्रमुख एक प्रघानमंत्री होता है, संसदीय प्रणाली के अनुसार काम करता है। दलाई लामा को विश्व स्तर पर एक राज्यध्यक्ष का र्दजा दिया जाता है। इस मंत्रीमंडल को चीन संदेह के नजरिये से देखता है। उसे संशय है कि तिब्बत का यह समूह चीन के अलगाववादी ताकतों को बल देता है.
1959 में दलाई लामा के भारत में शरण लेने के समय काल में चीन का एक दूसरा चुनौती शिनजियांग में रहने वाले उइगर चीनी मुसलमानों पर अपनी पकड़ को मजबूत करनी थी । उन्होंने शिनजियांग संपर्क सड़क का निर्माण शुरू किया जो तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र से होकर भारत के अक्साई चिन इलाक़े से गुजरती थी। चीन के लिए यह रास्ता महत्वपूर्ण था और भारत के विरोध ने उसके लिए रणनीतिक दुविधाएँ पैदा कर दीं। अब इस सड़क और भारत में तिब्बती प्रमुख दलाई लामा की उपस्थिति, दोनों स्थितियों ने चीन के लिए बड़ी सुरक्षा चुनौती पैदा कर दी और 1962 के आने वाले वर्ष में युद्ध शुरू हो गया।
20 अक्टूबर से 20 नवंबर 1962 तक भारत-चीन युद्ध का केंद्रबिंदु मुख्य रूप से अक्साई चिन क्षेत्र था, लेकिन वर्तमान अरुणाचल प्रदेश में उनकी सैन्य कार्रवाइयों ने उन्हें आशा से अधिक क्षेत्र दिए । युद्ध के अंत में उन्होंने वर्तमान अरुणाचल प्रदेश से हटने का फैसला किया लेकिन अक्साई चिन में अपने सैन्य कब्जे वाले क्षेत्रों को अपने नियंत्रण में रखा । कालांतर में चीन अक्साई चीन वाले क्षेत्र पर अपना नियंत्रण कायम रखने के लिए अरुणाचल प्रदेश और अन्य जगहों से अपने दावे को निरस्त करने की भी बात कही ,यदि भारत अक्साई चीन उन्हें स्थाई रूप से दे देता है ।
चीन ने 1962 ऑपरेशन के लिए अक्टूबर और नवंबर के महीनों को चुना क्योंकि अमेरिका इन महीनो में क्यूबा संकट में उलझा हुआ था। इसलिए, यह अब सर्व विदित करने की जरुरत है की भारत-तिब्बत-चीन वाले क्षेत्र में 1950 के दशक में अमेरिकियों की सक्रिय भूमिका रही है।
सड़क और रेल संचार में आधुनिक सुधार के साथ, चीन शिनजियांग के लिए वैकल्पिक सड़क और रेल लाइन बनाने में सक्षम हो गया है, इसलिए पुराने रणनीतिक महत्व की सेवा वाली अक्साई चीन से गुजरनेवाली पुरानी सड़क की महत्व कम हो गई है। लेकिन बेल्ट एंड रोड पहल के तहत चीन ने राजमार्ग के इस हिस्से के माध्यम से अरब सागर और तिब्बती स्वायत्त क्षेत्र को जोड़ने वाले चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारे या काराकोरम राजमार्ग में भारी निवेश किया है। कूटनीतिक समझदारी चीन को सड़क की सरंचना या एलाइनमेंट अक्साई चीन से बाहर की तरफ बदलने के लिए राजी करने में निहित है, जिसमें कुछ सौ मिलियन डॉलर का खर्च आएगा, जिसका खर्च भारत उठा सकता है और चीन अपने दीर्घकालिक आर्थिक लाभ के लिए अक्साई चिन के साथ-साथ सकसम घाटी को भारत को वापस कर सकता है। भारत दलाई लामा की चीन गणराज्य के भीतर तिब्बत की बढ़ी हुई स्वायत्त स्थिति के साथ वापसी के लिए चीन के साथ मध्यस्थता करने से सभी पक्षों को लाभ होगा । चीन, भारत और तिब्बत के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व से सभी हितधारकों को आश्चर्यजनक लाभ मिलेगा, यह सुनिश्चित है ।
*अमेरिका सी आई ए का तिब्बती प्रतिरोध को समर्थन*
अमेरिका हमेशा से ही कम्युनिस्ट विचारधारा का विरोधी रहा है । द्वितीय विश्वयुद्ध के समापन पर चीन के अंदर सत्ता पर दखल के लिए सत्तारूढ़ नेशनलिस्ट पार्टी और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के बीच सशस्त्र संग्राम शुरू हुई , जिसमे अमेरिका ने खुल कर नेशनलिस्ट पार्टी को समर्थन दिया । 01 अक्टूबर 1949 को कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा पुरे चीन पर प्रभुता कायम करने पर ,अमेरिका अपना दूतावास फारमोसा (अभी का ताइवान )पर स्थापित किया । सबसे महत्वपूर्ण बात यह है की अमेरिका ने 30 बर्षों के बाद 01 जनवरी 1979 को कम्युनिस्ट पार्टी वाली मौजूदा पीपुल्स रिपब्लिक चीन को मान्यता दी और ताइवान से नेशनलिस्ट पार्टी द्वारा संचालित सरकार से समर्थन वापस लिया । भारत ने जबकि कम्युनिस्ट चीन को तुरंत ही मान्यता दी और आजतक मेनलैंड चीन और ताइवान को एक राष्ट्र निति के तहत एक मानता रहा है ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका का खुफिया तंत्र ,सी आई ए लगातार तिब्बत के लोगों को कम्युनिस्ट पार्टी के खिलाफ सशस्तत्र समर्थन देता रहा है । दलाई लामा के भाई गयलो थोंडुप ने अपनी आत्मकथा , द नूडलेमकर ऑफ़ कलिम्पोंग -द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ़ माय स्ट्रगल फॉर तिब्बत में सी आई ए द्वारा तिब्बतन लडाकों का चुनाव, अमेरिका के खुफिआ अड्डे पर प्रशिक्षण और फिर उनका भारत में एक अत्यंत ही खुफिया संगठन 22 द्वारा तिब्बत में सशस्त्र लडाई की विस्तृत जानकारी दी है । चीन अमेरिका -भारत और तिब्बत निवासियों द्वारा चलाये गए इस अभियान से वाकिफ़ था । फलस्वरूप चीन अपनी प्रतीरोध नीतियों के तहत भारत के उत्तरी पूर्व राज्यों के नागा ,मणिपुरी, मिज़ो और आसाम के दहशतगर्दों का खुल कर समर्थन किया और पाकिस्तान को भारत के खिलाफ भी उकसाया जिससे एक गंभीर सुरक्षा चुनौती खड़ी हो गयी । यह सिलसिला 1972 तक चला और 21 से 28 फरवरी 1972 को जब अमेरिका प्रेसिडेंट रिचर्ड निक्सन और उनके विदेश सचिव हैनरी किसेंगेर चीन के दौरे पर पाकिस्तान द्वारा किये गए मध्यस्था से जाने पर ही रुका । इस कूटनीतिक घटना ने एशिया महाद्वीप और खास कर तिब्बत में चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन को एक बडा धक्का दिया ,क्योंकि अमेरिका ने तिब्बत को मदद वाले अपने विशेष ऑपरेशन को खत्म कर दिया । भारत में इतने सालों बाद भी इस पुरे प्रकरण पर कोई चर्चा नहीं होती और इसे सुरक्षा के दायरे का हवाला दे कर जानकारियां बंद रखी जाती हैं ।
चीन और अमेरिका के संबंधों का असर भारत तिब्बत पर भी पड़ता है । चीन हमेशा से सशंकित रहता है की अमेरिका भारत में रह रहे दलाई लामा की मदद से तिब्बत पर उनकी अधिकार को बड़ी चुनौती दे सकता है । चीन को वर्तमान परिस्थति में ताइवान युद्ध की चुनौती मिल रही है , ऐसे समय उसे पता है की तिब्बत और शिनजियांग इलाके में जन विद्रोह उसे बहुत महंगा पड़ेगा ।
इन दोनों बिंदुओं को जोड़ने से चीन की आशंका और सशस्त्र संग्राम द्वारा तिब्बत की आज़ादी में मुश्किलें स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं । अमेरिका का तिब्बत के लोगों का समर्थन एक पुराना प्रकरण हो गया है , जरुरत है चीन के साथ हमारे राजनयिकों को बैठ कर खुले दिल से तिब्बत पर बातचीत कर एक स्थायी हल निकालना है ।
राजनयिकों ने तिब्बत मुद्दे की गंभीरता को भटकाया है. भारतीय राजनयिकों के समूह या डिप्लोमेटिक कॉर्प्स ने भारत-चीन विवाद को सुलझाने में अपनी सीधी भागीदारी से परहेज किया। वे चीन के साथ सीमा विवाद का कोई भी आउट ऑफ़ बॉक्स समाधान नहीं दे सके।