आज भी भारतवर्ष की असंख्य महिलाएँ घरेलू हिंसा, दहेज प्रताड़ना एवं मानसिक उत्पीड़न की अंतहीन पीड़ा सह रही
भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में विवाह मात्र दो व्यक्तियों का नहीं, अपितु दो वंशों, दो कुलों एवं दो परिवारों का पावन मिलन माना गया है। यह केवल एक सामाजिक अनुबंध नहीं, सात जन्मों तक चलने वाला अटूट बंधन है, जिसमें विश्वास, समर्पण और परस्पर श्रद्धा का अद्वितीय समावेश होता है। किन्तु दुर्भाग्य यह है कि कालान्तर में यह पवित्र संस्था अनेक विकृतियों एवं विडंबनाओं की शिकार होती जा रही है।
वर्तमान काल में आए दिन कुछ अत्यंत हृदय विदारक घटनाएँ समाज के सम्मुख आती हैं — कहीं पत्नी द्वारा पति की हत्या, कहीं उत्पीड़न से तंग आकर पति की आत्महत्या, कहीं वैवाहिक जीवन में अपमान, तो कहीं कानूनों के दुरुपयोग के प्रकरण। ये घटनाएँ समाज में क्षोभ, पीड़ा एवं आक्रोश का वातावरण निर्मित करती हैं। और तब कुछ स्वर यह कह उठते हैं —
“यही है स्त्रियों को अधिकार देने का परिणाम।”
परंतु क्या कुछ अपवादात्मक घटनाओं के आधार पर समस्त स्त्री समाज को कटघरे में खड़ा कर देना न्यायोचित है? क्या यह सनातन भारतीय संस्कृति के विनाश का पूर्व संकेत है?
सत्य यह है कि आज भी भारतवर्ष की असंख्य महिलाएँ घरेलू हिंसा, दहेज प्रताड़ना एवं मानसिक उत्पीड़न की अंतहीन पीड़ा सह रही हैं।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़े स्वयं इसका प्रमाण हैं —
वर्ष 2017 से 2022 के मध्य भारत में दहेज के कारण 35,493 नवविवाहिताओं की हत्या हुई।
केवल वर्ष 2020 में ही ‘घरेलू हिंसा से संरक्षण अधिनियम, 2005’ के अंतर्गत 496 प्रकरण पंजीकृत हुए।
यह तो वे मामले हैं जो न्यायालय की दहलीज तक पहुँचे।
वास्तविकता की गहराई इन आंकड़ों से कहीं अधिक भीषण और पीड़ादायक है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि यदि इन आंकड़ों का एक प्रतिशत भी उन मामलों में परिवर्तित किया जाए, जहाँ महिलाओं ने पुरुषों के विरुद्ध उत्पीड़न किया हो, तो संभवतः वहां आंकड़ों की शून्यता ही दृष्टिगोचर होगी।
विवाह संस्था में व्याप्त दहेज प्रथा का दंश आज भी उतना ही जीवित है जितना कि पूर्वकाल में था। यह लेन-देन मात्र विवाह-मंडप तक सीमित नहीं रहता।
विवाह के उपरांत प्रत्येक पर्व, संस्कार, जन्मोत्सव एवं पर्वों पर कन्या पक्ष से उपहारों, धन, वस्त्र, आभूषण आदि की अनवरत माँग बनी रहती है।
और विडंबना यह कि इतना सब देने के उपरांत भी मायके पक्ष का हृदय भयाकुल रहता है —
कहीं ससुराल वाले अप्रसन्न न हो जाएँ।
कहीं बिटिया को अपमान, तिरस्कार, ताने या मारपीट न झेलनी पड़े।
कहीं वह घर उजड़ न जाए, कहीं उसकी देह ही न छिन जाए।
माता-पिता की प्रत्येक साँस इस भय के साथ चलती है।
उनकी प्रत्येक प्रार्थना में यही स्वर उठता है —
“हे ईश्वर! बस मेरी बेटी का घर बसाए रखना।”
किन्तु जब कभी कोई बहु साहस कर अन्याय के विरुद्ध स्वर उठाती है, तब वही समाज जो उसकी पीड़ा को वर्षों अनदेखा करता रहा, उसे ही कठघरे में खड़ा कर देता है।
और तब पुनः वही जड़ मानसिकता मुखर हो उठती है —
“यही है स्त्रियों को अधिकार देने का परिणाम।”
यह कथन उस मानसिकता का नग्न प्रतिबिंब है जो आज भी स्त्री को सम्मानपूर्वक स्वतंत्रता देने से कतराती है। समस्या स्त्री की स्वतंत्रता में नहीं है, समस्या है — उसे उसके अधिकारों के साथ जीने देने की मानसिकता में।
यह भी सत्य है कि कुछ अपवादस्वरूप महिलाएँ अपने अधिकारों का दुरुपयोग कर रहीं हैं। झूठे आरोप, असत्य मुकदमे, प्रताड़ना के मिथ्या प्रकरणों ने कई निर्दोष पुरुषों को भी बर्बादी की कगार पर ला खड़ा किया है। किन्तु दुरुपयोग की संभावना मात्र से किसी भी कानून की आवश्यकता व उद्देश्य को नकार देना स्वयं अन्याय है।
जहाँ पुरुष पीड़ित हैं, उन्हें भी निष्पक्ष न्याय मिलना चाहिए।
उनकी भी व्यथा समाज को सुननी चाहिए।
किन्तु यह सत्य भी ध्यान रहे कि कुछ अपवादों के कारण सम्पूर्ण स्त्री समाज को अधिकार-विहीन कर देना किसी सभ्य राष्ट्र का लक्षण नहीं।
वास्तविक संकट पुरुष बनाम स्त्री के संघर्ष में नहीं है। संकट है — सामाजिक संतुलन के विघटन में।
जब तक हम यह स्वीकार नहीं करते कि स्त्री और पुरुष दोनों को समान सम्मान, समान संरक्षण और समान दायित्व मिलना चाहिए — तब तक हम न अपने समाज की रक्षा कर पाएँगे और न ही अपनी सांस्कृतिक धरोहर को अक्षुण्ण रख सकेंगे।
आदित्य तिक्कू
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