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संविधान और सेक्युलर शब्द

सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द पर विवाद के मायने

 

संविधान की प्रस्तावना में सोशलिस्ट सेक्यूलर शब्द पर इस समय सबसे सघन बहस चल रहा है। इमरजेंसी के 50 वर्ष पर आयोजित एक कार्यक्रम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह श्री दत्तात्रेय होसबोले ने अपने भाषण में याद दिलाया कि जब देश में सारे मौलिक अधिकार समाप्त थे ,विपक्ष के नेता जेल में थे तब ये शब्द संविधान में डाले गए। उनका यह भी कहना था कि बाबा साहब अंबेदकर ने संविधान का जो अंतिम दस्तावेज दिया और जिसे स्वीकृत किया गया उसमें सोशलिस्ट सेक्यूलर शब्द नहीं थे। इसी में उन्होंने प्रश्न उठाया कि क्या ये शब्द संविधान में रहने चाहिए? ऐसा लगा जैसे कांग्रेस सहित हमारे देश के बुद्धिजीवियों , एक्टिविस्टों , पत्रकारों के एक वर्ग को बिच्छू ने डंक मार लिया हो। कांग्रेस पार्टी की समस्या विकट है। आपातकाल का अपराध और पाप उसके साथ ऐसे नत्थी है जिससे न वह मुक्त हो सकती है और न जुड़े रहना चाहती है। इसलिए वह किसी बात का प्रतिवाद करे आलोचना करे तो समझ में आता है। वैसे भी राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस इस समय पुराने जमाने की अतिवादी कम्युनिस्ट और समाजवादी धारा की आवाज बनने की कोशिश कर रही है। संघ के विरुद्ध हमलावर रहना, संघ और हिंदुत्व विचारधारा के विरुद्ध स्वयं को लड़ते हुए दिखाना उसकी रणनीति का सर्वप्रमुख अंश है। उनका सबसे बड़ा आधार ही है कि ये सेक्यूलर विरोधी हैं ,अल्पसंख्यकों यानी मुसलमानों , ईसाइयों को उसके नागरिक अधिकारों को हृदय से स्वीकार नहीं करते तथा एक मजहब को देश पर स्थापित करना चाहते हैं।

संघ के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार को लेकर राहुल गांधी और उनके रणनीतिकार लगातार अलग-अलग तरीके से यही आरोप भारत और दुनिया भर में लगाते रहे हैं। इसलिए उनको इस वक्तव्य पर टूट पड़ना ही था। हालांकि वे इस बात का उत्तर नहीं दे रहे कि जब संविधान निर्माताओं ने ये शब्द नहीं डाले तो आपातकाल में क्यों जोड़े गए? आपातकाल में जब पूरी शक्ति तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के हाथों से निहित थी, विपक्ष के प्रमुख नेता ही नहीं विरोधी दिखने वाले संगठनों का शीर्ष नेतृत्व या तो जेल में था या अंडरग्राउंड तो ऐसी क्या स्थिति उत्पन्न हो गई थी जिससे इन शब्दों का डालना आवश्यक हो गया था?

वैसे होसबोले के भाषण का यह एक पहलू था। उन्होंने कार्यक्रम में हर विचारधारा के उपस्थित समूह के बीच कहा कि आपातकाल लागू होने के पूर्व चलने वाले आंदोलन में चुनाव सुधार, शीर्ष भ्रष्टाचार, शिक्षा व्यवस्था में सुधार , परिवारवाद आदि अनेक मुद्दे थे और आपातकाल को याद करते समय बात करनी चाहिए कि इन मामलों में क्या हुआ। उसी में आगे बढ़ते हुए उन्होंने अन्य कदमों के साथ संविधान में लाए गए परिवर्तनों का विषय उठाया। इस तरह उनके प्रस्तावना में सेक्यूलर सोशलिस्ट शब्द जोड़ने का विषय उनके भाषण कै संपूर्ण पैकेज का एक अंश था। खैर , उनमें जाए बिना हम इन पर ही विचार करते हैं। प्रस्तावना आधुनिक राजव्यवस्था में संविधानों की आत्मा मानी जाती है। प्रस्तावना संविधान का बीज या आधार होता है और इसलिए सामान्यतया यह अपरिवर्तनीय होता है। विश्व के किसी प्रमुख देश ने शायद ही कभी प्रस्तावना में बदलाव किया हो। सन् 1973 में केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य मामले में उच्चतम न्यायालय के 13 न्यायाधीशों की पीठ ने प्रस्तावना पर गहराई से विचार किया था। न्यायमूर्ति एच आर खन्ना ने कहा था कि प्रस्तावना संविधान की व्याख्या के लिए एक मार्गदर्शक का कार्य करती है और यह दर्शाती है कि संविधान की सत्ता का स्रोत कौन है? अर्थात भारत की जनता। संविधान सभा में भी प्रस्तावना पर बहस हुई और इसे आवश्यक , सही और उचित समझकर जोड़ा गया। आपातकाल में भारत के लोग अपने देश की सरकार के दासत्व में थे। इस तरह 1976 के 42 वें‌ संशोधन के द्वारा जिसे बदला नहीं जा सकता या नहीं जाना चाहिए उसे बिना किसी औचित्य के फुहड़ तरीके से बदल दिया गया।

संविधान सभा में इसे लेकर काफी बहस हुई थी जिनमें विस्तार से जाना न संभव है न आवश्यक। इतना कहना पर्याप्त है कि के टी शाह और कुछ सदस्यों ने कई बार कोशिश की कि सेक्यूलर और सोशलिस्ट शब्द संविधान में डाला जाए। सदस्यों ने गंभीर विमर्श के बाद इसे स्वीकार नहीं किया। स्वयं डॉ बाबा साहब अंबेदकर ने इसके विरुद्ध मत व्यक्त किया। तो कांग्रेस और विरोधी जो भी कहें सबसे मूल प्रस्तावना को बदल देना संविधान निर्माता की भावनाओं की हत्या थी तथा उन सबके प्रति विश्वासघात।

संविधान हाथ में लेकर संविधान बचाने की सेना बनती कांग्रेस संविधान के साथ किए गए अत्याचारों को कैसे स्वीकार सकती है। संविधान सभा में इस बात पर आम सहमति थी कि यूरोप या पश्चिम से निकला सेक्यूलरिज्म या सेक्यूलरवाद हमारे यहां अभिप्रेत नहीं है। रीलिजन और धर्म समानार्थी नहीं हैं। रीलीजन का दर्शन एक मसीहा या पैगम्बर के कथनों की विशेष पुस्तक में निहित है। यही अंतिम सत्य है जिस पर न प्रश्न उठ सकता है न उसमें बदलाव हो सकता है। यह एक वृत्त है जिसमें‌ बाहर वालों के लिए स्थान नहीं। भारतीय सभ्यता में धर्म की अवधारणा इससे अलग है। यानी प्रकृति और ब्रह्मांड के साथ हमारा संबंध अत्यंत पवित्र है जिसके मूल में सृजन है और हमारा दायित्व सबके प्रति है। तो हमारे यहां धर्म अपने दायित्व के पालन से संबंधित था। यहां ईसाईयत या इस्लाम की तरह रीलिजन का कोई संगठित तंत्र नहीं रहा जिसका राज्य व्यवस्था पर नियंत्रण या उसमें लगातार निष्ठुर हस्तक्षेप हो। वहां राज्य को रीलिजन से अलग करने या रीलिजन के आघात से राज्य को बचाने के लिए सेक्यूलरवाद विचार निकला। इसीलिए संविधान सभा में माना गया कि हमारी राज्य व्यवस्था का चरित्र सर्वधर्म समभाव का होगा और सेक्यूलरिज्म का अर्थ इसके उलट है।

सेक्यूलरिज्म का अर्थ हम पंथनिरपेक्ष मानते हैं पर उसके समर्थक इसका अर्थ धर्मनिरपेक्ष बताते हैं। धर्म से निरपेक्ष होने का अर्थ संपूर्ण प्रकृति और ब्रह्मांड के प्रति अपने दायित्वों से निरपेक्ष हो जाना है। कल्पना करिए यह‌ विचार कितना अनर्थकारी है। भारतीय धर्म और सभ्यता में सांप्रदायिकता के लिए कोई स्थान ही नहीं है। वैसे संविधान में सेक्यूलर शब्द नहीं डालने के बावजूद स्वतंत्रता के बाद से सत्ता संचालन करने वाल स्वयं को सेक्यूलर कहते हुए कई बार धार्मिक होने का प्रदर्शन तो करते रहे किंतु व्यवहार में आस्थाओं, कर्मकांडों ,परंपराओं आदि को अंधविश्वास, पिछड़ेपन और मूर्खता बनाकर पूरी पीढ़ी को मानसिक विकृति का शिकार बना दिया ।

धर्म आधारित भारतीय सभ्यता के संस्कार के कारण बहुसंख्स लोग अंदर मानसिक दमन की अवस्था में रहे। उन्हें लगता रहा कि जो कुछ वे हैं उसे प्रकट करेंगे तो उन्हें अंधविश्वासी और पिछड़ा मान लिया जाएगा। इस कारण उनमें अनेक प्रकार की कुंठा और विद्रोह का भाव पनपा । इसका परिणाम व्यवहार में अनर्थकारी ही हुआ है। सोशलिस्ट शब्द वास्तव में कम्युनिस्ट विचारधारा से ही निकला। रुस का पूर्वज सोवियत संघ खूनी क्रांति के बाद स्वयं को सोशलिस्ट रिपब्लिक घोषित किया और उससे प्रभावित ज्यादातर देशों ने भी। इंदिरा गांधी और परिवार को सोवियत लॉबी का पूरा समर्थन था और उसके प्रभाव में भारत की अनेक नीतियां बनीं जिनमें गरीबी हटाओ नारे से लेकर बैंकों का राष्ट्रीयकरण शामिल था। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने इन‌ शब्दों को नासूर और उथल-पुथल पैदा करने वाला कहा।

 

जिन सेक्यूलर और सोशलिस्ट देशों की बात हम करते हैं उन्होंने दुनिया में एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका , अमेरिका और यूरोप तक में जितनी सभ्यताओं को नृशंसता से नष्ट किया , विरोधियों की जितनी संख्या में नृशंसता से हत्याएं की, जैसी हिंसा की और आज भी कर रहे हैं उसके आलोक में विचार करिए तो फिर सेक्यूलरिज्म और सोशलिज्म का चरित्र समझ में आ जाएगा। वैसे भी एक प्रधानमंत्री, जिसे उच्च न्यायालय ने छः वर्ष तक चुनाव लड़ने के आयोग्य करार देते हुए चुनाव रद्द कर दिया हो तथा उच्चतम न्यायालय सशर्त स्थगनादेश देते हुए आदेश दिया हो कि आप संसद की कार्यवाही में भाग ले सकतीं हैं लेकिन मतदान नहीं कर सकती वह अपनी निरंकुशता के लिए आपातकाल लागू कर प्रधानमंत्री बनी रहें तो उनके द्वारा अपनी संकीर्ण सत्तावादिता के लिए संविधान में लाए गए परिवर्तनों को स्वीकार करने से बड़ा दुर्व्यवहार संविधान के साथ कुछ नहीं हो सकता। इसलिए आप संघ के विरोध या समर्थन से कुछ समय के लिए बाहर निकल होसबोले के कथन पर भारत के दूरगामी भविष्य का ध्यान रखते हुए विचार करेंगे तो आपका निष्कर्ष यही आएगा कि इनका स्थान संविधान में नहीं हो सकता।

अवधेश कुमार, ई-30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली – 110092 , मोबाइल 9811027208

 

 

 

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