ये शायरी जुबां है किसी बेजुबान की – गीत-गन्धर्व नीरज की शाश्वती देशना ( भाग १ )

बात आज से लगभग चार दशक पूर्व की है। एक कवि के रूप में मंच पर मेरा आगमन हुए थोड़ा ही समय बीता था। मंच के युवा संचालक के रूप में मुझे सामान्यजन और प्रबुद्ध वर्ग का पर्याप्त प्रश्रय और अनुराग मिला। यह घटना कानपुर के मर्चेण्ट्स चेम्बर हाॅल से जुड़ी है। वहाँ एक कवि सम्मेलन में मुझे बुलाया गया था। नीरज जी को उस कार्यक्रम की अध्यक्षता करनी थी किन्तु उनके समय से न आ पाने के कारण संयोजकों ने सोम जी को अध्यक्षासन पर बैठाने का निर्णय किया। सरस्वती वन्दना हो चुकी थी।
उसी समय संयोजक महोदय मेरे पास आये और कुछ घबराये स्वर में कहा कि नीरज जी का आगमन हो गया है किन्तु उन्होंने यह कहकर कि सोम जी तो मुझसे बहुत छोटे हैं, मैं उनकी अध्यक्षता में काव्य-पाठ नहीं करूँगा हम लोगों को मुश्किल में डाल दिया है। यदि वह बिना काव्य-पाठ किए लौट गये तो हमारे लिए बहुत ही विषम स्थिति हो जायेगी। अध्यक्ष आसन पर बैठे हुए व्यक्ति को हटाया भी नहीं जा सकता और नीरज जी मंच पर आने को तैयार नहीं हैं। क्या आप कुछ कर सकते हैं ? मैंने कहा कि जहाँ नीरज जी बैठे हैं क्या वहाँ तक मंच पर माइक से बोली जा रही बात ठीक सुनाई पड़ रही है। उन्होंने स्वीकृति में सिर हिलाया। मैंने कहा कि अब आप उनके पास जाकर बैठ जाइये और कोशिश कीजिये कि वह मंच से कही जा रही बात को सुन सकें।
उसी समय मैंने मंच से उद्घोषणा की कि आप सबको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि हमारे प्रतीक्षित कवि मंच के सर्वाभिवन्दित सम्राट् गीत-गन्धर्व नीरज जी का शुभागमन हो गया है। सरस्वती के इस दिव्य मंच पर आज आप एक अद्भुत घटना को घटित होते हुए देखेंगे। सामान्यतः प्राकृतिक जीवन में चन्द्रमा की उपस्थिति में कमल नहीं खिलता। सोम का अर्थ चन्द्रमा होता है और नीरज का अर्थ कमल। यह संभव नहीं है कि सोम के सामने नीरज खिल जाये किन्तु यह साहित्य का मंच है। यहाँ के नियम अलग हैं। आप देखेंगे कि इस मंच पर नीरज अर्थात् धरती का परम सौन्दर्य कमल प्रकट होगा और शब्द के आकाश में स्थित सोम अर्थात् चन्द्रमा स्वयं आगे बढ़कर उसे प्रणाम करेगा। ऐसा दिव्य परिवेश साहित्य-देश में ही देखने को मिल सकता है।
मेरे इन वाक्यों को नीरज जी ने सुना, मुस्कराये और चुपचाप मंच पर चले आये। उनके आते ही सोम जी उठे, उन्हें प्रणाम किया और घोषणा की कि नीरज जी की अनुपस्थिति में मैं अध्यक्ष पद पर बैठ गया था किन्तु अब वह आ गये हैं अतः वरिष्ठतम होने के नाते ये ज़िम्मेदारी वह स्वयं सम्हाले तथा उन्हें श्रद्धापूर्वक अध्यक्ष के आसन पर बैठाल दिया। सारा वातावरण स्वस्ति और आश्वस्ति से आपूरित हो गया।
कवि सम्मेलन के बाद थोड़ी देर नीरज जी के साथ बैठने का अवसर मिला। वह एकान्त में बैठे बीड़ी पी रहे थे। मैंने जाकर प्रणाम किया। उन्होंने पास बैठाला और पूछा – क्या करते हो ? मैंने कहा कि मैं एक विद्यालय में अध्यापक हूँ। उन्होंने कहा कि मंच पर तुम्हारी भाषा बता रही थी कि तुमने पर्याप्त अध्ययन किया है। फिर मेरी ओर देखकर कहा – शायद तुम कुछ पूछना चाहते हो! मैंने कहा कि मेरे लिए आप बचपन से आदर्श रहे हैं। आपकी कविताएँ पढ़कर मुझे बहुत प्रेरणा मिली है किन्तु मेरे चित्त में एक सुलगता हुआ प्रश्नचिह्न भी है। मेरा पालन-पोषण वैष्णवी संस्कारों में हुआ है और आपके बारे में मैंने बहुत-से अपवाद सुन रखे हैं। आपके ‘‘आचमन’’ की लड़खड़ाहट के किस्से हम युवाओं में पर्याप्त चर्चित हैं। मैं अपने आदर्श कवि की छवि से उसके इस रूप को मिला नहीं पाता और परेशान हो जाता हूँ। यह मेरा सौभाग्य है कि मैं आज पहली बार आपके साथ मंच पर हूँ किन्तु मैं परेशान हूँ कि मैं सम्पूर्ण श्रद्धा के साथ आपकी तरफ़ देख नहीं पा रहा हूँ। नीरज जी ने मेरी पीठ पर हाथ रखा और बहुत आश्वस्तिदायक स्वर में कहा – मैं तुम्हारी उलझन समझ सकता हूँ।
अच्छा बताओ कि पक्षियों में कबूतर को बहुत प्रेम क्यों किया जाता है? मेरे चुप रहने पर उन्होंने स्वयं ही उत्तर दिया कि कबूतर की उड़ान बहुत मोहक होती है और इसी कारण उसका व्यक्तित्व सम्मोहक हो जाता है। कवि भी कबूतर की तरह है। वह जब कविता की उड़ान भरता है तो आकाश में समृद्धि की रेखा खिंच जाती है। किन्तु वही कबूतर धरती पर उतरकर घूरे पर भी बैठता है और उसमें से अपनी पसंद के दाने भी खाता है। कबूतर हो वही है किन्तु इस समय वह अपनी उड़ान से नहीं जुड़ा है, एक सामान्य पक्षी है। कवि भी अपने सामान्य जीवन में बहुत-सी कमियों का शिकार हो सकता है किन्तु उसकी उपलब्धि उसकी कविता है और उसका आकलन उसकी कविता से ही होना चाहिए। मैं मानता हूँ कि मेरे जीवन में बहुत-सी लड़खड़ाहटें हैं किन्तु ये तो व्यक्ति नीरज के साथ विदा हो जायेंगी। मेरी कविता मेरे बाद भी रहेगी और तुम्हारे जैसे तमाम रचनाकारों को प्रेरित करती रहेगी। तुम व्यक्ति नीरज को उसी के लिए छोड़ दो, तुम कवि नीरज को अपने हृदय में बसाओ और उसकी कविता पर चिन्तन करो। और ऐसा मेरे साथ ही नहीं हर किसी रचनाकार के साथ करो। तुम जिन बातों को उचित नहीं समझते हो उन्हें निश्चित रूप से मत करो किन्तु जिस कविता को प्रेरक मानते हो उसे गुनगुनाते रहो, तुम्हारे साथ मेरा यह सम्बन्ध सदा रहेगा।
नीरज जी ने अपनी इस देशना से मुझे एक नयी दृष्टि दी। एक कवि अगर अपने आचरण में भी बहुत श्रेष्ठ है तो वह कवि भी है और संत भी। किन्तु यदि उसके जीवन में अनेकानेक कमियाँ हैं और उसकी कविता अत्यन्त प्रभावशाली है तो वह विशिष्ट है और हर शब्द-साधक के लिए प्रणम्य है। दाग़ चाँद में होता है, चाँदनी निष्कलंक होती है।
यह भी जीवन का विचित्र संयोग रहा कि मेरी पी-एच.डी. के परीक्षकों में नीरज जी भी थे और मौखिक परीक्षा में मैं उनके प्रश्नों का सटीक उत्तर दे सका। परीक्षा समाप्त होने के बाद उन्होंने बहुत ही उल्लास के साथ मुझे आशीषों से अभिषिक्त कर दिया। उन्होंने मुझसे हाथ मिलाने के लिए हाथ आगे बढ़ाया और तब मैं उनके पास पहुँचकर उन्हें प्रणाम करके बोला कि आपका हाथ मेरे शीश पर रहे और मेरा हाथ आपके चरणों पर – यही उपयुक्त होगा। वह मुस्करा दिये और मुझे हृदय से लगा लिया।
गीतकार नीरज की गीतिका-साधना
गीतकार नीरज के विषय में एक युग से बहुत कुछ लिखा गया है, उनकी गीत यात्रा पर बहुत से शोध-प्रबन्ध सामने आये हैं किन्तु दुष्यन्तोत्तर हिन्दी ग़ज़ल के प्रभावी प्रस्तुतकर्ता के रूप में उनके योगदान के बारे में अपेक्षाकृत कम प्रकाशित हुआ है। अपने अवसान के कुछ वर्ष पूर्व से ही नीरज जी ने काव्य-मंच पर गीतों के स्थान पर ग़ज़लों को पढ़ना शुरू कर दिया था। यह पाठ उनके स्वास्थ्य के अधिक अनुकूल है – ऐसा उन्हें प्रतीत होता था। ‘‘कारवां गुज़र गया’’ तो उन्हें पढ़ना ही पड़ता था किन्तु शेष समय में वह ग़ज़लें ही पढ़ते थे जिन्हें उन्होंने ‘‘गीतिका’’ नाम दिया था। इस सन्दर्भ में एक रोचक दृष्टान्त याद आ रहा है – हम दोनों दूरदर्शन के किसी कार्यक्रम में एक साथ थे। शूटिंग प्रारम्भ होने से पहले नीरज जी मुझे एक तरफ़ ले गये और कहा कि बेटा, आज मैं एक नयी ग़ज़ल पढ़ना चाहता हूँ। उसकी दो प्रारम्भिकाएँ मैंने लिखी हैं, तुम्हारी दृष्टि में मुझे किसे तरजीह देना चाहिए –
कहानी बन के जिये हम तो इस ज़माने में,
तुमको लग जायेंगी सदियाँ हमें भुलाने में।
तथा –
इतने बदनाम हुए हम तो इस ज़माने में,
तुमको लग जायेेंगी सदियाँ हमें भुलाने में।
मैंने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया कि सचमुच कुछ लोग अपने जीते जी एक जीवन्त कहानी बनकर सहृदयों के हृदय में अपनी पैठ बना लेते हैं और उन्हें भुलाया नहीं जा सकता। किन्तु कुछ लोगांे से लोग इतना प्यार करते हैं कि उनकी कमज़ोरियाँ भी उनके भावकों के लिए उपेक्षणीय न रहकर वन्दनीय हो जाती हैं। सौभाग्य से आपमें ये दोनों ही तत्व समाहित हैं। अतः मुझे लगता है कि जब आपका ग़ज़ल-संग्रह निकले तो आप कहानी वाली बात लिखें किन्तु जब आप मंच पर पढ़े ंतो बदनामी वाली बात कहें। आपकी तथाकथित बदनामी आपकी प्रसिद्धि के परिपाश्र्व में उसी को रेखांकित करते हुए खड़ी है। नीरज जी मुस्कराये और सचमुच उन्होंने ऐसा ही किया। उनके संकलन में कहानी वाला शे‘र प्रकाशित हुआ और मंच पर हमेशा उन्होंने बदनामी वाली बात कहकर श्रोताओं को अनुरंजित किया। वह चाहते थे कि परिनिष्ठित शब्दों का प्रयोग भी हिन्दी ग़ज़ल में पूरी कलात्मकता के साथ किया जाये और स्वयं उन्होंने इसके कई उदाहरण प्रस्तुत किये। अन्तिम दिनों में वह जिन भावपूर्ण कथनों को ग़ज़ल में बाँधते थे वे मेरे जैसे तमाम लोगों को विचलित कर देती थीं –
1.
कोई दरख़्त मिले या किसी का घर आये,
मैं थक गया हूँ कहीं छाँव अब नज़र आये।
2.
बस एक बिरवा मेरे नाम का लगा देना,
जो मेरी मौत की तुम तक कभी ख़बर आये।
3.
वहीं पे ढूँढ़ना नीरज को तुम जहाँ वालो,
जहाँ भी दर्द की बस्ती कोई नज़र आये।
नीरज जी की ग़ज़लों में सकारात्मकता का एक स्वर हमेशा से रहा है जो हर थके-हारे इंसान के कंधे पर आश्वस्ति का संस्पर्श बनकर शोभित होता है –
हारे हुए परिन्दे जरा उड़ के देख तो,
आ जायेगी ज़मीन पे छत आसमान की।
जुल्फ़ों के पेचो-ख़म में उसे मत तलाशिये,
ये शायरी जुबां है किसी बेजुबान की। क्रमशः
संकलन: प्रीति गैंगवार , फर्रुखाबाद (UP)