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एक ही घूँट में दीवाने जहाँ तक पहुँचे।

नीरज जी की ग़ज़लों में जगह-जगह व्यंग्य की अन्तर्धारा के दर्शन होते हैं

एक ज़माना था जब ग़ज़ल शब्द का उच्चारण करते ही चित्त में किसी शाही दरबार में मखमली कालीन पे चलती हुई नाज़नीन का बिम्ब जागा करता था, शायरी नायिका के नख-शिख वर्णन की वर्णमाला होकर रह गयी थी और विरह के निःश्वास तथा प्रेम के उच्छ्वास अतिश्योक्ति की सीमा तक पहुँचकर मात्र किसी फुलझड़ी के चमकने का प्रभाव छोड़ पाते थे। किन्तु धीरे-धीरे नये युग ने परिवर्तन की भाषा पढ़ी और ग़ज़ल अपने वक़्त का अन्दाजे़बयां बन गई। नीरज जी ने भारतीय जीवन-दर्शन की ऊँचाइयों को भी उसमें समाहित करने की सफल चेष्टा की और बताया कि (जैसा कि कठोपनिषद् कहता है) ईश्वर को शास्त्रों के अध्ययन से, सम्पत्ति के संचयन से और तथाकथित अर्चना के प्रदर्शन से नहीं पाया जा सकता, उसे पाने के लिए तो एक बाबलापन चाहिए। जो उससे कुछ नहीं चाहता अपितु उसको चाहता है उसे ईश्वर स्वयं खोजता हुआ आ जाता है अथवा उसका हाथ पकड़कर उसे अपने दरवाजे़े तक ले आता है। नीरज जी कहते हैं –
वे न ज्ञानी न वो ध्यानी न बिरहमन न वो शेख़,
वे कोई और थे जो तेरे मकां तक पहुँचे।
इक सदी तक न वहाँ पहुँचेगी दुनिया सारी,
एक ही घूँट में दीवाने जहाँ तक पहुँचे।
इस युग में ऐसा सम्भव ही नहीं है कि कोई समय-सचेत कवि रचना करे और उसमें वक़्त के सीने के दर्द की लहरें समाहित न हो जायें। मुट्ठीभर अरबपतियों के समाज में अथाह दरिद्रता के आँचल में जी रहे जन-समूह को देखकर नीरज का गीति-स्वर अग्निवीणा की झंकार बनने की तरफ़ उन्मुख हो उठता है, वह पहले कहता है –
तुम समझ जाओगे क्या चीज़ है भारतमाता,
तुमने बेटी किसी निर्धन की अगर देखी है।
और फिर हुंकार भरता है –
अब तो मैदान में आना होगा,
प्रश्न काग़ज़ पे न ये हल होंगे।
नीरज जी की ग़ज़लों में जगह-जगह व्यंग्य की अन्तर्धारा के दर्शन होते हैं। उन्हें उस वक़्त आँसुओं से नहाई हँसी आ जाती हैै जब भूखे लोगों के लिए रोटी की जगह दवा के इंतज़ाम के इश्तहार लगाये जाते हैं। उनकी दृष्टि में आज की सियासत लुभावने नारों की सीढ़ी लगाकर सत्ता की कुर्सी पर पहुँचने का इंतज़ा मात्र है, उसे आम आदमी की तकलीफ़ से कुछ लेना-देना नहीं –
मुझको उस वैद्य की विद्या पे तरस आता है,
भूखे लोगों को जो सेहत की दवा देता है।
तू खड़ा हो के कहाँ माँग रहा है रोटी,
ये सियासत का नगर सिर्फ़ दग़ा देता है।
उन्हें इस बात पर बहुत क्षोभ है कि देश का आम आदमी झूठे सपनों से बहल जाता है और एक लम्बे अरसे से लोकतंत्र शोकतंत्र बना हुआ है। आज राजनीति बलिदान की कथा नहीं रही, वंचना की कला हो गई है। वह परियों की सुहानी कहानी सुनाती रहती है और लोग परिपाश्र्व के घने अँधकार को भूलकर कभी न आने वाले कल के सुनहरे सपनों में खो जाते हैं –
भूखा सोने को भी तैयार है ये देश मेरा,
आप परियों के उसे ख़्वाब दिखाते रहिए।
यहाँ यह भी उल्लेख्य है कि ग़ज़लों में दुष्यन्त से पहले हिन्दी का अपना तेवर रंग जी ने भरा था यद्यपि हिन्दी ग़ज़ल को देशव्यापी लोकप्रियता दुष्यन्त ने ही प्रदान की। नीरज जी एक कृतज्ञ अनुज की तरह रंग जी योगदान को अक्सर याद करते हैं –
जो ‘रंग’ गीत का ‘बलवीर’ जी के साथ गया,
न हमने देखा कहीं वैसा ‘रंग’ फिर यारो!
जैसा कि पहले कहा जा चुका है नीरज जी के अवचेतन में भी हिन्दी ग़ज़ल को एक प्रशस्त छटा, एक प्रांजल स्वरूप, एक परिनिष्ठित भाषा देने की अभिलाषा जी रही थी, यद्यपि उनकी अधिकांश रचनाएँ रोज़मर्रा की बोलचाल की भाषा में हैं लेकिन उनके अन्तस् में जाग्रत सांस्कृतिक चेतना जब भाषा को भोजपत्र बना लेती है शब्द एक आकाशी प्रकाश के साथ अवतरित होते हैं –
गगन बजाने लगा जल-तरंग फिर यारो,
कि भीगें हम भी ज़रा संग-संग फिर यारो!
ये रिमझिमाती निशा और ये थिरकता सावन,
है याद आने लगा इक प्रसंग फिर यारो!
उमड़-घुमड़ के जो बादल घिरा अटारी पर,
विहंग बन के उड़ी हर उमंग फिर यारो!
पिया की बाँह में सिमटी है इस तरह गोरी,
सभंग श्लेष हुआ है अभंग फिर यारो!
तथा –
घृणा का प्रेम से जिस दिन अलंकरण होगा,
धरा पे स्वर्ग का उस रोज़ अवतरण होगा।
न तो हवा की है ग़लती न दोष नाविक का,
जो ले के डूबा तुझे तेरा आचरण होगा।
तू उस रसिक से अपरिचित ही रहेगा नीरज,
कि जब तलक तेरी संज्ञा पे विशेषण होगा।
वैयक्तिकता को कविता में बाँधना बड़े कवियों की आदत रही है। मिर्ज़ा ग़ालिब भी कहा करते थे  ‘‘कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाजे़ बयां और’’ और ऐसी ही सात्विक गर्वोक्ति न जाने कितने कवियों की रचनाओं में हमें प्राप्त हो जायेगी। नीरज जी भी अपवाद नहीं हैं। मंच की अपार लोकप्रियता को उन्होंने जिया है और उनके मन में अपने इस कवि के प्रति पर्याप्त सम्मान है –
किस तरह सुर और सरगम से महक उठते हैं घर,
गीत नीरज के किसी दिन गुनगुनाकर देखिए। ………….

है उसके वास्ते पागल कली-कली अब तक,
कोई तो बात है नीरज के गुनगुनाने में। ………..

गीत उन्मन है ग़ज़ल चुप है, रुबाई है दुखी,
ऐसे माहौल में ‘नीरज’ को बुलाया गया है। …………..

मत उसे ढूँढ़िए शब्द के नुमायशघर में,
हर पपीहा यहाँ नीरज का पता देता है। …………..

बहुत हैं और यहाँ गीतकार ऐ नीरज,
हमीं ने सिर्फ़ हरेक रात रेशमी की है। …………….

जो सादगी है कहन में हमारे नीरज की,
किसी पे ओर भी क्या ऐसा बाँकपन देखा। …………..

चूड़ियाँ करती हैं जैसे किसी सिन्दूर की याद,
यूँ ही ‘नीरज’ की याद तुम्हें आयेगी। …………..
कविवर नीरज के भीतर प्रारम्भ से ही एक दार्शनिक विद्यमान रहा है। उनके अत्यन्त प्रसिद्ध प्रेमगीतों में भी दर्शन की गहन सूक्तियाँ मिलती हैं। गीति विधा के प्रति उनका सहज अनुराग है। गीत का जीवन्त स्वर ही आगे चलकर ज्योतिष्मती गीतिका बनकर प्रकट हुआ। यहाँ एक महत्वपूर्ण प्रसंग का उल्लेख करना समीचीन होगा। विदेशी मूल्यों को शीश पर ताज की तरह सजाने वाली नयी कविता के दौर में जब गीत को तिथि बाह्य घोषित किया गया, दिनकर जी ने क्षुब्ध होकर लिखा –
जब गीतकार मर गया चाँद रोने आया,
चाँदनी मचलकर उठी कफ़न बन जाने को।
किन्तु उस समय के युवा गीतकार नीरज को युग नायक कवि का यह अवसाद स्वीकार नहीं हुआ। उन्होंने गीत के अमृतत्व की घोषणा की और गीतकार के जन्म पर प्रकृति के उत्सव का चित्रण किया –
जब गीतकार जन्मा धरती बन उठी गोद,
हो उठा पवन चंचल झूलना झुलाने को।
भ्रमरों ने दिशि-दिशि गूँज बजाई शहनाई,
आई सुहागिनी कोयल सोहर गाने को।
करुणा ने चूमा भाल दिया आशीर्वाद,
पीड़ा ने शोधी राशि प्रीति ने धरा नाम।
जय हो वाणी के पुत्र घोष कर उठी बीन,
अम्बर उतरा आँगन में करने को प्रणाम।
इसी तरह उन्होंने उन नवतावादियों पर आक्षेप किया जो कुंठा, घुटन, अवसाद आदि को युग की पहचान घोषित कर रहे थे और आयातित विचारों को अनुदित करके वैदेशिक चिन्तना से आक्रान्त विश्वविद्यालयों के मठाधीश बनकर हिन्दी कविता की जातीय अस्मिता छन्द, लय और उसके प्राणतत्व प्रेम को उपहासित कर रहे थे। नीरज जी ने तब लिखा –
इतना दानी नहीं समय,
जो हर गमले में फूल खिला दे।
इतनी भावुक नहीं ज़िन्दगी,
हर ख़त का उत्तर भिजवा दे।
यह सब सच है लेकिन इतने पर भी
मैं सोचा करता हूँ
जब न आदमी प्यार करेगा
जाने भुवन कहाँ पर होगा।
गीत की लय, प्रणय का ज्योतिर्वलय और पीड़ा का संचय नीरज के व्यक्तित्व और कृतित्व के रेखांकित प्रतीक रहे हैं। आज जब हिन्दी ग़ज़ल समय को समग्रता में निरूपित कर रही है और साथ ही साथ सांस्कृतिक चेतना की तुलसी के चैरे पे जलते हुए आस्था के दीपक को भी सम्हाले है, नीरज जी की पंक्तियाँ बहुत याद आती हैं और उनकी सार्वकालिक प्रासंगिकता तो प्रकट करती हैं –
हर किसी शख़्स की क़िस्मत का यही है क़िस्सा,
आए राजा की तरह जाए वो निर्धन की तरह।
जिसमें इन्सान के दिल की न हो धड़कन ‘नीरज’,
शायरी तो है वह अख़बार की कतरन की तरह।
उनको समाज की यह विवशता हमेशा सालती रही है कि पैसे की पैशाचिकता ने भावनाओं को कुचला है और एक सारस्वत साधक को आत्मदहन करके अँधेरे में प्रकाश करने की विवशता को जीना पड़ा है –
अर्थ-वेदी पर भावनाओं को,
आँसुओं से विवाह करना पड़ा।
उनकी महफ़िल में रोशनी के लिए,
कितनों को आत्मदाह करना पड़ा।
नीरज जी की स्पष्ट मान्यता है कि (और यही ढाई आखर में समस्त शास्त्रों का सार बतलाने वाले सन्तों की देशना है) तीर्थों में ईश्वर की प्रतिमाएँ हो सकती हैं किन्तु ईश्वरत्व तो वहीं होता है जहाँ निष्कलमष प्रणय का अभ्यर्चन होता है –
तू ढूँढता है कहाँ उसको काबा-काशी में,
वहीं वो होगा जहाँ प्रेम का कथन होगा।
कभी-कभी उनकी अभिव्यक्ति में इतनी मासूमियत आ जाती है कि उन्हें किसी बच्चे की तरह दुलराने का मन करता है। वस्तुतः जैसे एक वृद्ध दार्शनिक नीरज में निरन्तर विद्यमान है उसी तरह एक नटखट किन्तु मासूम बच्चा भी उनके अन्तस् के आँगन में खेलता दिखता है। उनके अशआर गवाही देते हैं-
आज पलकों में मुझे ख़्वाब बनाकर रख लो,
कल मैं खो जाऊँगा गुमनाम गुफ़ाओं की तरह।
मुझको सुलझाने में तुम ख़ुद ही उलझ जाओगे,
ज़िन्दगी है मेरी साधू की जटाओं की तरह।
जी हाँ ‘नीरज’ में बहुत दोष हैं लेकिन फिर भी,
माफ़ कर दो उसे बच्चों की खताओं की तरह।
एक वाक्य में कहा जाये तो नीरज सरस्वती के चरणों में अर्पित साधना, भावना और आराधना का वह स्वर्ण कमल है जिसकी पंखुरी-पंखुरी से प्रसारित कविता के प्रतिमानों की सुवास वातास को आनन्द का आवास बनाती है।

– डाॅ॰ शिव ओम अम्बर

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