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बौने हुए विराट् हमारे गाँव में

लोकप्रिय कवि  डाॅ॰ शिव ओम अम्बर के कुछ संस्मरण 

कानपुर के कवि-समाज में विजय किशोर मानव मेरे सहज स्नेही अनन्य बन्धु रहे। हम दोनों ने लगभग एक साथ मंचों पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी। उस समय गीत की भूमिका केन्द्रीय होती थी और शेष सभी रस आनुषंगिक थे। सहृदय श्रोता-वर्ग सर्वश्री नीरज-सोम ठाकुर-रमानाथ अवस्थी-भारतभूषण-किशन सरोज जैसे गीतकारों को पूरी तल्लीनता के साथ सुना करता था। आत्मप्रकाश जी तथा डाॅ. कुँअर बेचैन मंच पर अपना आसन स्थिर कर चुके थे और अपेक्षाकृत युवतर पीढ़ी के विजय किशोर मानव, शतदल, शिवकुमार अर्चन आदि गीतकार अपनी प्रतिभा प्रमाणित करने के अवसर प्राप्त कर रहे थे। मानव के पास एक सम्मोहक स्वर के साथ-साथ एक उदात्त सौन्दर्य-दृष्टि और एक जनवादी गीति-अभिव्यंजना भी थी अतः वह पर्याप्त प्रभावी सिद्ध होते थे। प्रायः वह अपने काव्य-पाठ का प्रारम्भ इन पंक्तियों से करते थे –

धूप तिरछी
सुबह नदी-तट पर
हिलती लहरों में
ऐसे दिखती है
जैसे कोई
शकुन्तला लेटी
अपने दुष्यन्त को
ख़त लिखती है।

इसके बाद वह नवगीत के शिल्प वाले अपने गीत पढ़ा करते थे और सर्वान्त में एक-दो ग़ज़लें। उनके कुछ गीत पुनः पुनः सुने जाते थे-

दरवाजे़े अपने हैं ताले गैरों के,
आँगन में हिस्से हैं नत्थू-ख़ैरों के।

तथा –

यात्राएँ गंगासागर की नावें पत्थर की ……… आदि।

उनकी यह ग़ज़ल उस युग की एक चर्चित ग़ज़ल थी जो उनका नाम लिये जाते ही याद आ जाती थी –

बौने हुए विराट हमारे गाँव में,
बगुले हैं सम्राट हमारे गाँव में। ………

मानव के साथ कई बार उनके कार्यालय में जाकर बैठा हूँ। ‘‘दैनिक जागरण’’ के रविवासरीय पृष्ठ उस काल-खण्ड में साहित्य-सम्वद्र्धन की महती भूमिका निभा रहे थे। मंच पर मेरी तथा अन्य मित्रें की भी कोई नई रचना सुनकर यदि वह प्रभावित होते थे तो उसे तुरन्त ‘‘जागरण’’ के लिये माँग लेते थे और बड़े सम्मान के साथ उसे उपयुक्त सज्जा-सहित प्रकाशित करते थे।
मानव और शतदल की मित्रता की उन दिनों मिसाल दी जाती थी। एक बार किसी आयोजन में जाते समय मैं मानव के साथ शतदल जी के आवास पर ठहरा हूँ। शतदल जी के पास हिन्दी के वरेण्य गीतकारों के काव्य-पाठ का एक स्पृहणीय विराट् संग्रह है। उस रात बड़े उत्साह से शतदल जी ने हमें उस संग्रह के कुछ अंश सुनवाये। मानव के कार्यालय में ही मेरा परिचय तब कविता के क्षितिज पर उभरते हुए प्रातिभ हस्ताक्षर प्रमोद तिवारी ‘‘अमन’’ से हुआ था जिसने आगे चलकर पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र में अपनी विस्फोटक बल्लेबाजी के कीर्तिमान बनाये। कानपुर से मानव ‘‘दैनिक हिन्दुस्तान’’ में वरिष्ठ सम्पादक बनकर दिल्ली चले गये। स्वभावतः अब सम्पर्क विरल हो गया किन्तु स्नेह और सख्य का वह सूत्र निरन्तर सलामत रहा, आज तक बरक़रार है। इण्डियन आॅयल के सम्मानित काव्य-मंच पर मानव के प्रस्ताव पर ही मुझे कविवर शेरजंग गर्ग ने बुलवाया था और पहली बार मुझे लाल क़िले पर काव्य-पाठ हेतु बुलाये जाने के पीछे भी मानव की संस्तुति और सद्भावमयी आकांक्षा थी। फ़र्रु. में महीयसी महादेवी की प्रतिमा-प्रतिष्ठा के अवसर पर मैं दिल्ली के कुछ साहित्यकारों की उपस्थिति चाहता था। मानव के स्वयम् आगे बढ़कर रुचि लेने के कारण ही यह कार्य संभव हो सका। अब मोबाइल के इस दौर में समय  पर मानव के गीतमय सन्देश आकर उनके उत्सवधर्मी चित्त से जोड़ते रहते हैं।

– डाॅ॰ शिव ओम अम्बर

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