फागुन आया गांव में, लेकर ये सौगात
दहकी-दहकी दोपहर, बहकी-बहकी रात,
फागुन आया गांव में, लेकर ये सौगात।
प्रकृति में चारों तरफ उत्सव का माहौल है, फागुन आ गया है और अनंग अपने रंग में है। उसके पुष्प-धनुष
से शरों का सन्धाान होने लगा है। मन के आकाश में खिलते हुए इन्द्रधनुष और दृष्टि के वातास में बिखरते हुए रंग
साहित्य के दर्पण में भी प्रतिच्छवित हो रहे हैं –
खनक उठे हैं लाज के, बागी बाजूबन्द,
संयम के हर छन्द को, होने दो स्वच्छन्द।
आम के बौर को देखकर सहृदय कवि को प्रतीत होता है कि सहकार के ये वृक्ष गुलाबी शंख बजा रहे हैं
और उनकी ध्वनि को सुनकर नौजवानों के दिलो की किताबों में सहेजकर रखे गए मोरपंख बाहर आने को अकुला
उठे हैं। कभी उसे ऐसा भी लगता है कि फागुन के सैलाब ने समग्र परिवेश को अपने में निमज्जित कर लिया है
और रातें रागवती तथा दिवस परागवन्त हो उठे हैं –
चढ़ा गांव दर गांव यूं, ये सैलाबी फाग,
राग-राग है रात हर, प्रात पराग-पराग।
हर कदम पर मोहक बिम्बों की चित्र-वीथी सजी है। चांदनी महुए की गंध की तरह प्राणों में उतरती है तो
धूप नवोढ़ा की तरह चेतना में झिलमिलाती है –
मौसम की उच्छ्वास में है महुए की गन्ध,
टूट रहेंगे आज फिर संयम के तटबन्ध।
तथा –
भरे कलश में देह के, क्षीरसिन्धु सा रूप,
बैठी है वट के तले, घूंघट काढ़े धूप।
माथे पर गुलाल का टीका लगाये, आंखों में आत्मीयता भरी दृष्टि का उजास लिये, स्वागत में फैली बांहें और
अधरों पर दीप्तिमती मुस्कान लिए उत्सव-पुरुष मुझे होलिकोत्सव के साकार उल्लास की तरह प्रतीत होता है। यश
मालवीय याद आते हैं –
उत्सव के दिन आ गए, हंसे खेत-खपरैल,
एक हंसी में धुल गया, मन का सारा मैल।
उत्सव में ‘सव’ शब्द यज्ञ का वाचक है और ‘उत्’ उपसर्ग उध्र्वगमन का प्रतीक होता है। जो हमें ऊंचाई की
तरफ न ले जाए, उदात्त न बनाए और यज्ञ अर्थात् समष्टि के हित से न जोड़े वह कैसा उत्सव ? होली अहम् की
आहुति देने का, विराट के आलिंगन का और आत्मविसर्जन का महत् पर्व है। रंगों के माध्यम से जब हम स्वर्ग के
इन्द्रधनुष को पृथ्वी पर उतार लाते हैं, जलती हुई होली में नवान्न की आहुति देते हुए जब हम व्यष्टि-चेतना को
समष्टि चेतना से जोड़ते हैं और एक-दूसरे को बांहों में भरते हुए जब हम ‘एकोऽहम् बहुस्याम’ के लीलाभाव का
साक्षात्कार करते हैं, तो हम सच्चे अर्थों में उत्सव की अर्थ-ध्वनियांे को पकड़ पाते हैं अन्यथा हर उत्सव एक
औपचारिकता और हर अनुष्ठान एक कर्मकाण्ड बनकर रह जाता है। स्व. नजीर बनारसी कहा करते थे –
पूरा बरस पड़ा है समझ-बूझ के लिए,
इक दिन गुजार लीजिए दीवानेपन के साथ।
जब दिल न मिलने पाये तो मिलने से फायदा,
दिल का मिलन जरूरी है होली-मिलन के साथ।
फागुन की चरमोपलब्धि है होलिकोत्सव और के इस त्योहार की सार्थकता तभी है जब मात्र बाहरी
वस्त्र ही रंजित न हों, हमारी व्यक्ति सत्ता की पंचरंग चुनरी भी रंगों से सराबोर हो जाए और ये रंग इतने गाढे चढ़ें
कि न ये साल भर छूटती और न इन्हें छुड़ाने का मन हो।
– डाॅ॰ शिव ओम अम्बर